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Friday, February 19, 2010


तुम क्यों आये ?
तुम इसतरह आये मेरे सावन में,
उम्मीदों का सिलसिला बनता गया.
आँखों में नया आकाश खिलता गया,
पंछियों की तरह मेरा मन उड़ता गया,
यौंवन की धुप आँगन लगता गया,
सायों में मेरी ,तेरा रंग छिपता गया,
नींदों में तू चुपकेसे जगता गया,
मेरे लबों की सरगम बनता गया,
आँखों में करवटें लेता गया,
मौसमों से हर रंग चुराता गया,
मेरे आँचल में लाकर छुपाता गया,
पर जब आज तुम नहीं हो ,
तो आज बारिस भी सुखा सा है,
इसकी बूंदों में कुछ कशक सा है,
राश्तों में अकेलापन सा है,
आज भी तू मेरी सायों में छिपता है,
पर जब भी आकर लिपटता है,
एक अनजाना दर्द सा सीने में उठता है,
उमीदों का सिलसिला अब भी बनता है,
पर ये भी फीका सा लगता है,
मेरा पंछिसा मन अब कुछ चुप सा रहता है,
लबो पर जो गीत बनते है,
वो खुद से बाते करते है,
आज भी, मेरी आँखों में तू ही करवटे लेता है,
पर तब तिनके सा चुभता है,आंसुओ में बह जाता है.
नींदों में जब तू जगता था,रात अच्छे लगते थे,
पर अब तेरा वही, मुझमे जगना खलता है,
तुम्हारे जाने के बाद, अब मौसमो ने रुख बदला है,
अब हमने भी उनसे लड़ना छोड़ दिया है.
हाँ हमने अब,
जिंदगी को रंगीन बनाना छोड़ दिया है.

1 comment:

Unknown said...

too guud thats like my frnd